एक सोच है जिंदगी
हम जो भी करते है सोच कर करते जाते है कभी सोच रास्ता दिखा देती है तो कभी यही सोच हमे एक मरु भूमि की और लाकर खडा कर देती है, जहा जीवन तो है परन्तु जिंदगी , जिंदगी से भी कठिन हमारे जीवन का सब कुछ बुनियादी जरूरतों पर भले ही टिका है लेकिन जीवन मात्र बुनियादी जरुरतो से नहीं चलता, उसके लिए तपना पड़ता है | सोने से भी ज्याद क्योंकि सोना तो एक बार तप कर निकल आता है पर जीवन हर पल तपता रहता है कभी सूरज की गर्मी से तो कभी समस्याओं से हम जिस रूप में जीवन को ढालते है | उसी रूप में हमारे समक्ष आ खड़ा होता है , कभी दर्द में आंसू बन कर तो कभी खुशी में तेज बनकर पर यदि कभी सोचा जाए तो खुशी और गम हमारी सोच के दो पहलु ही तो है जो हम सोचते है यदि वही हो तो जिंदगी खुशी में सराबोर हो जाती है और बिन सोचे या किये यदि कुछ बुरा मिले तो वही गम बन हमारे सामने खड़ा हो जाता है !
हमे क्या मिलेगा ये हमारे कर्म पर आधारित है और कर्म की प्राप्ति एक अच्छी सोच से होती है | हम भले ही अपने आप को दोषी माने पर हमारे साथ यदि कुछ बुरा हुआ है तो कही न कही हमारी सोच भी उस में शामिल है | किसी भी आदमी की सोच उसे छोटा बड़ा बनाती है ,हमारे कर्म सोच पर आधारी है अतः अपनी सोच को बेहतर बनाए जिंदगी अपने आप बेहतर बन जायेगी |
फ़िराक' गोरखपुरी - (संकलन)
'फ़िराक' गोरखपुरी को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला तब दिल्ली के विज्ञानभवन में इंदिरा गांधी की अध्यक्षता में एक सम्मान समारोह का आयोजन हुआ था | परिषद् के अध्यक्ष डॉ. गोपाल रेड्डी ने फ़िराक साहब के कान में कहा; "फ़िराक साहब ! पुरस्कार का चेक आप प्रधानमंत्री को भेंट कर दीजिए, पब्लिक की भलाई के कार्यो के लिए |"
फ़िराक स्वभाव से स्पष्टवादी होने के बावजूद कुछ नहीं बोले | इस कारण गोपाल रेड्डी को आशा जगी | शायद फ़िराक साहब अपने भाषण के दौरान चेक भेंट करने की घोषणा करेंगे| जब फ़िराक साहब का भाषण भी संपन्न होने को आया तब गोपाल रेड्डी ने उन्हें ईशारे से याद दिलाया | उसे देखकर फ़िराक साहब ने स्मित के साथ कहा; "अब मैं आप सभी को
एक किस्सा सुनाता हूँ | एक तहसीलदार साहब थे | उन्हों ने एक संस्था खोल रखी थी, जिसका नाम था -"विधवा सहायक संस्था |" जो भी उनसे मिलने आता, सबसे वे इस संस्था के लिए चंदा वसूल करते थे | कुछ समय में उनके पास काफी धन
इकठ्ठा हो गया | तब लोगों ने सवाल किया, "तहसीलदार साहब ! इन रूपयों का इस्तमाल तो कीजिए |"
जवाब में उन्हों ने कहा; "इस्तेमाल जरूर होगा | आखिर मैं सारी उम्र तो बैठा नहीं रहूँगा | मेरे बाद मेरी विधवा का क्या होगा?"
सभा भवन ठहाकों से गूँज उठा | फ़िराक गोरखपुरी रेडी के सामने देखकर हँसने लगे और रेडी उनकी बात का मर्म जान गएं |
फ़िराक स्वभाव से स्पष्टवादी होने के बावजूद कुछ नहीं बोले | इस कारण गोपाल रेड्डी को आशा जगी | शायद फ़िराक साहब अपने भाषण के दौरान चेक भेंट करने की घोषणा करेंगे| जब फ़िराक साहब का भाषण भी संपन्न होने को आया तब गोपाल रेड्डी ने उन्हें ईशारे से याद दिलाया | उसे देखकर फ़िराक साहब ने स्मित के साथ कहा; "अब मैं आप सभी को
एक किस्सा सुनाता हूँ | एक तहसीलदार साहब थे | उन्हों ने एक संस्था खोल रखी थी, जिसका नाम था -"विधवा सहायक संस्था |" जो भी उनसे मिलने आता, सबसे वे इस संस्था के लिए चंदा वसूल करते थे | कुछ समय में उनके पास काफी धन
इकठ्ठा हो गया | तब लोगों ने सवाल किया, "तहसीलदार साहब ! इन रूपयों का इस्तमाल तो कीजिए |"
जवाब में उन्हों ने कहा; "इस्तेमाल जरूर होगा | आखिर मैं सारी उम्र तो बैठा नहीं रहूँगा | मेरे बाद मेरी विधवा का क्या होगा?"
सभा भवन ठहाकों से गूँज उठा | फ़िराक गोरखपुरी रेडी के सामने देखकर हँसने लगे और रेडी उनकी बात का मर्म जान गएं |
देश की दिशा....
प्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्रेंड रस्सेल ने "दी वरल्ड एज इट वौल्ड बी" में सुझाव दिया था कि भूखे को भूखा ही रहने दिया जावे, उसे खाना नहीं दिया जावे, क्रांति को जन्म मिलेगा | पढ़ें लिखे युवक को बार बबर पूछा जावे कि आप आजकल क्या कर रहे है? तभी वह रोजगार कि तलाश में श्रम करेगा |
अब सुरसा सामान बढती महंगाई से त्रस्त जनता सारी मलाई डकार जाने वाले नेताओं के अत्यचार से परेशान हो चुकी है, जिसका गुस्सा किसी के गाल पर तमाचे, किसी पर चप्पल फेकने के रूप में सामने आ रहा है | तभी तो
अन्ना आन्दोलन में पूरे देश कि जनता ने भरपूर समर्थन दे दिया | अब न रिमोट कंट्रोल से चलने वाले प्रधानमंत्री का अर्थशास्त्र ही कारगर हो सकता है, न कोई पार्टी को ही पूर्ण जनादेश मिलना संभव दिखाई देता है | ऐसे में अन्ना, बाबा
रिश्ता
कुछ तो ऐसा है, मेरे तुम्हारे बीच, जो मुझे तुम से बंधे हुए है .
कुछ तो ऐसा है, मेरे तुम्हारे बीच,जो मुझे तुम्हे, भूलने नहीं देता. कहने को तो कोई रिश्ता नही है, पर शायद एक मज़बूत रिश्ता है, जो समय, व दूरी से परे है .
सच कहूँ तो रिश्तों की कीमत तुमने कभी जानी ही नही. रिश्ता निभाना तुम्हे कभी आया ही नहीं, हो सकता है कि समय के साथ तुम रिश्तों की कीमत समझ जाओ और निभाना जान जाओ. खैर ये तो वक़्त ही जाने .
सोचती हूँ ...क्यूँ सोचती हूँ मैं तुम्हारे बारे मे इतना ? क्या लगते हो मेरे ? कुछ नहीं.... या सब कुछ ..
बड़ी दुविधा है !! क्या तुम भी हो इस दुविधा में ??
शायद नही ...या शायद हाँ ....या शायद ....मुझे नही पता !!
और मुझे पता भी कैसे होगा...हम दोनों अब बात कहाँ करते हैं . कैसे टूटा वो बातों का तार ..और क्यूँ ?
ना तो कोई लड़ाई हुई, और ना ही कोई ऐसी बात, फिर भी अब हम बात नहीं करते .
ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि मैं तुम से बात नहीं करना चाहती ....चाहती हूँ बात करना पर ....
ये " पर" हमेशा बीच में आ जाता है .
जानती हूँ हमारा रिश्ता बातों का मोहताज़ नहीं है , कोई नाम भी नहीं है इस रिश्ते का ...नाम दे भी तो क्या ?
ये बेनाम रिश्ता अच्छा है ..खास बात तो यह है कि एक रिश्ता तो है.