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शांति एंटीबायोटिक दवाओं की तुलना में बेहतर है..... हमारे उद्देश्य है आपको तनाव मुक्त बनाना

लघुकथा






सीख

  सीख निवेदिता ने बहुत पहले अपने बेटे को एक बार एक कहानी सुनाई थी .एक जिसमे एक प्रख्यात डाकू को मौत की सजा सुनाई गयी उसने फाँसी के तख्ते पर चढ़ाए जाने से पहले अपनी माँ से मिलने की इच्छा प्रकट की .जब माँ  रोती` हुई बेटे से मिलने आई तो उसने उसके कान में कुछ बात करनी चाही .माँ ने अपना कान आगे कियाही था कि बेटे ने दांतों से माँ का कान काट दिया .वह दर्द से छटपटा उठी उसने आश्चर्य से पूछा -`ये क्या कर रहे हो ?`बेटे ने जवाब दिया --`माँ जब मै बचपन में पहली बार पड़ोस से कुछ चुराकर लाया था ,उस दिन अगर तुमने मेरे कान खींच कर सजा दी होती तो आज ये दिन न देखना पड़ता `.माँ नि:शब्द हो गयी .उसे अपनी भूल का अहसास तो हुआ पर अब बहुत देर हो चुकी थी .
कहानी की शिक्षा ``चोरी करना पाप है``.कह कहानी समाप्त कर दी गई . 
                    
अब बरसों के बाद बच्चा स्कूल जाने लगा था .निवेदिता भी वही शिक्षिका थी .एक बार स्कूल के बच्चों की `पिकनिक`में सभी साथ-साथ एक प्रसिद्ध उद्यान  में गए . वहां फूलों के रंग रूप देख कर सभी के मन लालायित हो गए .उन्हें तोड़ने की मनाही थी फिर भी लौटते समय निवेदिता और उसकी एक सहेली ने अपने बेटे और उसके एक साथी को चुपचाप कुछ फूल तोड़ कर लाने को कहा उन्होंने सोचा यदि पकडे गए तो बच्चों की शरारत कह कर माफ़ी माँग लेंगी और उन्हें डांट भी देंगी .न पकडे गए तो अच्छा . 
                                        
निवेदिता का बेटा आँखें फाड़-फाड़ कर माँ की और देख रहा था और उसका साथी उसे चलने को कह रहा था .जब उसने अपने बेटे को जाने को कहा तो वह बोला--``माँ तो मै तुम्हारा कान कब काटूँ  अभी या बाद में ``.निवेदिता सिर झुकाए उसका हाथ पकड़ बस की और दौड़ पड़ी.




....आई एम नाट ए मुस्लिम

....आई एम नाट ए मुस्लिम
उस बडे तिजारती वेयरहाउस में इन दिनों गर्मी के साथ साथ गहमा गहमी भी बढ़ गयी थी, सर्दियों की कारोबारी सुस्ती के बाद गर्मियों में कंपनी की जब व्यापारिक गतिविधियां बढ़ती, तब हर साल अल्पकालिक कामगारों की भर्ती होती. कंपनी के पूर्णकालिक कामगारों को नये नये चेहरे हर गर्मी में दिखाई देते और जब सर्दियां आती, कनैडा के कारोबार को ठण्डा करती तब नये चेहरे फ़िर कहीं खो जाते.

ऐसे कई नये चेहरों में वह नौजवान, गर्मियों की छुट्टी में काम करके अपनी यूनिवर्सिटी की पढ़ाई को जारी रखने का दृढ़ निश्चय रखता था. उसके पिता सरदार और माता भारतीय मूल की वेस्ट इण्डियन थी, स्प्ताह में दो दिन आठ घण्टे के काम के बाद वह लंबा सफ़र तय करके यूनिवर्सिटी जाता, वह कभी भारत नहीं गया था, न उसे हिंदी आती थी. उसकी अंग्रेज़ी भाषा पर कनैडियन उच्चारण की छाप भलिभांति पहचानी जा सकती थी, उसके छोटे छोटे बाल, हल्की हल्की रौयेंदार दाढ़ी जिसे करीने से उसने स्टाईल दिया हुआ है और दाहिने हाथ में चांदी का बारीक सा कड़ा. भारतीय समाज में कोई गहरी समझ वाला ही उसे पहचान सकता है कि वह मोना सरदार है. उसका यहां प्रचलित नाम जैश है हालांकि काग़ज़ी नाम जसविन्दर सिंह है.
लंच के वक्त सभी अपना अपना खाना माईक्रोवेव आवेन में गर्म करते और साथ बैठ कर खाना खाते, यही वह वक्त होता जब कामगारों की जिज्ञासा एक दूसरे को जानने-पहचानने के लिये कुलाँचें मारती. भारतीय मूल के वेस्ट इण्डियन्स, करेबियन देशों के काले समुदाय के लोग और यूरोपिय देशों से आये हुये गोरे व स्थानीय गोरे सभी एक साथ बैठ कर गलबजियां करते. किसी को संगीत सुनना होता तो वह छोटे छोटे स्पीकर आईपोड में लगाकर वातावरण को लयबद्ध कर देता, ३० मिनट का अधिकृत भोजनावकाश ४० मिनट तक किसी न किसी तरह सरक ही जाता.
माईक्रोवेव की घंटी जल्दी से बज जाये इसकी प्रतीक्षा उसे भी रहती जिसका खाना है और उसे भी जिसे उसके बाद अपना खाना गर्म करना होता. घंटी बजी, जैश तेज़ी से लपका और अपने गर्म खाने का बडा सा बर्तन उसने निकाला, जिस पर एण्डी की निगाह पड़ी, गर्म खाने की खुश्बु से एण्डी ही सबसे पहले तरबतर हुआ. एण्डी करेबियन देश जमैका का रहने वाला इस कंपनी का एक बुजुर्ग भी है. उससे रहा न गया, "वाव, नाईस फ़ूड", उसकी तजुर्बेगार निगाहों ने खाने को पहचानते हुये, उत्सुकता वश अपने खाने का बर्तन माईक्रोवेव में रखते हुये जैश से पूछा," यू ईट पोर्क ?"
जैश ने जवाब दिया, "ओह याह, आई ईट पोर्क....आई एम नाट ए मुस्लिम". उसके जवाब में एक खास किस्म का तनाव था जो आखिरी लफ़्ज पर कुछ देर अटका रहा.

अवाम / चुनाव (लघुकथा)



अवाम
सत्ता के शीर्ष पर जब वह पहुंचा तो हैरान रह गया...क़दम-क़दम पर बेईमानी...भ्रष्टाचार....।
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आदर्श और मूल्य बस अब सिर्फ किताबों में सिमट कर रह गए हैं...उसे पहले डर भी लगा। किस-किस के खिलाफ़ वह हल्ला बोले....ऊपर से नीचे तक सब एक ही रंग में रंगे थे....लेकिन फिर उसने हिम्मत जुटाई...धीरे-धीरे सत्ता पर पकड़ बनाई। लोगों की आंखों से आंसू पोंछने के लिए वह लगातार कोशिश करता रहा....भ्रष्ट और बेईमानों की परेशानी बढ़ी....सत्ता में उसके सहयोगी उसके ख़िलाफ़ होने लगे तो पार्टी में उसके कामकाज के तरीक़े को लेकर फुसपुसाहट शुरू हो गई। लेकिन इन सबसे बेपरवाह वह लोगों के पक्ष में खड़ा होना उसने नहीं छोड़ा।
धीरे-धीरे विरोध बढ़ता गया। पार्टी और उसके सहयोगी उसे सत्ता से बेदखल करने के लिए लामबंद हुए...और फिर सबने एक सुर में उसे हटाने की मांग करने लगे....।
सारे विरोध के बावजूद वह अब भी सत्ता के शिखर पर बैठा हुआ है.....अवाम उसके साथ हैं....।

चुनाव
सत्ता के लिए पार्टी चाहिए और पार्टी चलाने के लिए पैसा...।
उसने पहले पार्टी बनाई....फिर पैसा और उसके बाद सत्ता हासिल की.....।
सब कुछ ठीक चल रहा था....सत्ता उसके पास थी और पैसा उस पर बरस रहा था....पैसा अब उसकी मजबूरी नहीं कमज़ोरी बन गई थी.....इस कमज़ोरी की वजह से उसकी परेशानी बढ़ती गई....उसके अपने साथी-संगी उसका साथ छोड़ने लगे....और एक दिन ऐसा आया कि उसे पैसा और लोगों में से किसी एक को चुनना था.....
उसने पैसे को चुना....अगले दिन लोगों ने उसे सत्ता से बेदख़ल कर दिया....।


 आत्मा की शांति

आत्मा की शांतिभीड़ की परिधि के अन्दर का दृश्य अत्यन्त हृदय-विदारक था। पास खड़े कुछ लोग नगर के ऑटो रिक्शा चालकों की अंधाधुंध ड्राइविंग पर अपना शाब्दिक क्रोध प्रकट कर रहे थे, तो वहीं कुछ लोग युवती के शव की शिनाख़्त के संदर्भ में तरह-तरह के कयास लगाने में मश्‌ग़ूल थे।

तभी सहसा दो सिपाही दुर्घटना-स्थल पर आ पहुँचे। भीड़ का वृत्त विस्तीर्ण हो गया। सिपाहियों ने शव के पास जाकर स्थिति का जायज़ा लिया। इसी दौरान उनकी ‘कागदृष्टि’ मृतका के मंगलसूत्र पर जाकर ठहर गयी। अब वहाँ एक ओर लालच से उत्पन्न भूख थी, तो दूसरी ओर तृप्ति-स्रोत बनने की प्रतिकारहीन लाचारगी, और वहीं इर्द-गिर्द थीं- भूख को उस स्रोत तक पहुँचने से रोकती हुई शताधिक अवरोधक आँखें। ऐसे में, दोनों सिपाहियों की शातिर निगाहें परस्पर टकरायीं; आपस में एक मौन संवाद स्थापित हो गया। अगले ही पल, एक सिपाही ने भीड़ की ओर बड़ी फुर्ती से लपककर अपना डंडा सड़क के चारों ओर पटकना शुरू कर दिया-  ‘चलिए...हटिए...भागिए यहाँ से...घेरा मत लगाइए!’

लोग तेज़ी से तितर-बितर होने लगे। इसी बीच, उधर ‘वकोध्यानम्‌’ की मुद्रा में तत्पर खड़े दूसरे सिपाही ने अपनी कारयित्री प्रतिभा का प्रमाण प्रस्तुत दिया... मृतका का मंगल-सूत्र उसकी क्षुधातुर जेब का ग्रास बन गया था।

अब मुझे उस सड़क पर एक के बजाय तीन लाशें दिखायी पड़ने लगीं...एक लाश तो शून्य में अपलक निहारती हुई-सी पूर्णतः निश्‍चेष्ट पड़ी थी, जबकि दो लाशें उस एक लाश के इर्द-गिर्द चलायमान थीं। एक लाश तो सड़क-दुर्घटना का ‘अनचाहा’ परिणाम थी, जबकि दो लाशों का ज़मीर लालच के भारी वाहन के नीचे स्वेच्छा से कुचलकर मर गया था। एक लाश की ‘आत्मा की शांति’ का मामला तो प्रभु की कृपा पर निर्भर था, जबकि दो लाशों ने अपनी आत्मिक शांति का ‘अस्थाई मार्ग’ अपने स्तर पर खोज लिया था।


कश्मकश (लघुकथा)

A-PAINTING

फोन की घंटी बजते ही श्यामला ने झट से फोन उठा लिया , " हाँ बोलो , देखो दो दिन और ठहर जाओ अब फोन मत करना सब क्या सोचेंगे !!! "
उसके चहरे पर मोती बिखरे थे, शरमाई थी वो , गुलाबी उंगलियों से फोन का लाल बटन दबा दिया ..यह देखकर चाची ,मामी, मौसी और गाँव से आई आंटी हंस रही थी ,मानो कुछ कहना चाहती हो ..
सुन.. !!! अब पति का घर ही तुम्हारा असली घर है तुम्हारी उम्मीदों का , तुम्हारे सूखों का और तुम्हारी नई दुनिया का, अब तुम दो कुलों की मर्यादा हो ... उस आंटी ने समझाते हुए कहा ...
जो पहले कुछ दिनों से खुश थी आज आंटी की बातों पर सहसा चुप हो गई ..नजरे झुक गई उसकी
"कैसे रह पाउंगी अपना बचपन का आँगन छोड़कर मै, आंटी " श्यामला की आवाज में दर्द उठा , एक अंजानी कश्मकश ..सब कुछ भुलाने की कोशिश ..
जब बेटी बिदा होती है अपने मायके से उसी दिन से वह पराई हो जाती है ..यह उसकी नियति है यही तो भाग्य है उसका ..आज उसे अपने बेटी होने का अहसास हुआ
भाई .माता , पिता से दूर होने का दुःख ... वह माँ से लिपटकर कहने लगी , " माँ ..माँ तुम आओगी न मुझसे मिलने ..कम से कम तुम तो पराया मत समझना मुझे .."
नहीं रे पगली ...कैसी बाते करती !!! माँ भी कभी अपने बच्चे को पराया करती है अपने से .. नहीं नहीं मेरी बच्ची.. माँ के कंठ फूट गए थे .
जानती है वह भी आज जब , अपने कलेजे के फ़ूल को अर्पित कर रही है उसके भाग्य के स्वामी को ...उसके भाग्य विधाता को ...जीवनभर के लिए ..सदा के लिए ..!!!


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खून का रिश्ता

BROTHERS
एक दिन अचानक समाचार मिला कि सतीश झंवर का सीकर में ट्रक की  टक्कर से दुर्घटना में  एक आँख की रौशनी चली गयी और एक हाथ की  हड्डी टूंट गयी | उसका साडू भाई मानस उसे देखने साकेत अस्पताल  गया | वह बाहर बगीचे में अपनी साली सोनाली के साथ बैठा था किअचानक भयंकर आंधी आयी | देखते ही देखते अस्पताल का ऊपर से बोर्ड  मानस के ऊपर आ गिरा | मानस पर बोर्ड सीधे ललाट पर गिरते हुए उसके एक आँख,नाक और जबड़े को काटता हुआ गिरा तो वहां हाहाकार मचगया |

साडूभाई के साथ ही वह भी साकेत अस्पताल,जयपुर में आई.सी.यु में भरती हो गया | उसकी एक आँख तो हादसे के समय ही बाहर निकल गिर पड़ी थी 
और उसमे खून भर गया था | डाक्टर ने नाक, और जबड़े का ओपरेशन कर पूरे चहरे के पट्टी बांध दी | १५ दिन तक गले में नलकी लगा सांस लेने और 
केवल ग्लुकोज पर ही जीवित रहने की मजबूरी हो गयी | डाक्टर ने बताया कि  इनकी छाती की पसलियों भी टूट गयी है ,उसका भी ओपरेशन होगा | 
दूसरी आँख में भी रौशनी आने की कम ही आशा है |

मानस के एक लड़की और एक गोद लिया हुआ १० वर्षीय लड़का है | अब  लगभग २ माह से दुकान के ताला लगा है | दो लाख रुपये से अधिक इलाज में खर्च हो चुके है |पत्नी मिथलेश किसे दोष दे | अपनी जिस बहन के बच्चे को गोद लिया, उसके पति को ही देखने गए थे, अस्पताल | नियति के हाथो पति अब 
जीवित भी रहे, तो जिंदगी भर उनकी सेवा करते रहने और स्वयं को मजदूरी कर बच्चो को पालने का तौफा, पता नहीं कैसी परीक्षा है ? 

मानस का अपने ही सगे बड़े भाई कमलेश से बोलचाल बंद था | यहाँ तक कि कमलेश के लडके अखिलेश की शादी में भी मानस और उसके परिवार का कोई  भी सदस्य सम्मिलित नहीं हुआ | पर मानस की दुर्घटना की जानकारी मिलते  ही कमलेश तुरंत अस्पताल गया और एक माह अपनी सरकारी नौकरी से अवकाश पर रह चोबिसों घंटे मानस की सेवा सुश्रुषा करने में लगा रहा | अब मानस अपने बड़े भाई से गले मिल,फूट-फूट कर नयनो से आंसू ढलकाता है | 
अब उसे बुजुर्गों से सुनी यह कहावत सटीक लगती है कि-- "चलना रस्ते-रस्ते,चाहे फेर ही हो, बैठना भाइयों बीच, चाहे बैर ही हो |" 

संकट में भाई का भाई ही साथ देता है, आखिर खून जो बोलता है | 

चित्र सौजन्य : गूगल