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संस्मरण



 
अख्तर की विनम्र याद..

अख्तर की विनम्र याद..बेगम अख्तर मदनमोहन को तब से जानती थीं, जब वे लखनऊ रेडियो स्टेशन पर थे। बेगम दिल्ली आई हुईं थीं और उन्होंने रेडियो पर मदनमोहन का एक गाना सुना। फिर आधी रात को बेगम अख्तर ने मदनमोहन को फोन किया और कहा कि वही गाना, ‘कदर जाने ना’ सुनाओ। वे 22 मिनट तक ट्रंक कॉल के जमाने में फोन पर वह गाना सुनवाते रहे। सोचिए, कैसा मंजर रहा होगा, जब ग़ज़लों की रानी बेग़म अख्तर गजलों के शहजादे मदनमोहन की आवाज में वह गाना सुन रही होंगी।

तीस के दशक में जब बोलती फिल्मों का दौर आया, तो बेगम अख्तर के सामने कलकाता की ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी ने अपनी फिल्मों में अभिनय की पेशकश की। इस तरह १९३३ में बेगम अख्तर ने ‘एक दिन का बादशाह’ और ‘नल दमयंती’ जैसी फिल्मों में काम किया। इसके बाद आईं ‘अमीना’, ‘मुमताज बेगम’, ‘जवानी का नशा’ और ‘नसीब का चक्कर ’ जैसी फिल्में। इसके बाद मशहूर फिल्म निर्देशक महबूब ख़ान ने उन्हें १९४२ में आई अपनी फिल्म ‘रोटी’ की नायिका बनाया। इस फिल्म में चंद्रमोहन और शेख मुख़्तार जैसे कलाकार भी थे। पचास के दशक में संगीतकार मदनमोहन ने बेगम साहिबा को फिल्मों में गाने के लिए मना लिया और दो फिल्मों में उनके गाने आए- १९५३ में फिल्म ‘दाना पानी’ का ‘ऐ इश्क़ मुझे और तो कुछ याद नहीं है..’ और १९५४ में ‘एहसान’ का ‘हमें दिल में बसा भी लो..’।

आइए,ज़रा उन नामचीन ग़ज़लों से होकर गुजरें, जिन्हें बेगम अख्तर ने अपनी आवाज़ से पेश किया है । जैसे शकील बदायूंनी की यह गजल, ‘ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया, जाने क्यों आज तेरे नाम पर रोना आया’। मीर की ग़ज़ल ‘उलटी हो गईं सब तदबीरें कुछ तो दवा ने काम किया। देखा इस बीमार-ए-दिल ने आखिर काम तमाम किया..’। मोमीन की ग़ज़ल ‘वो जो हममें तुममें करार था, तुम्हे याद हो या ना याद हो..’। जौक की ग़ज़ल ‘लाई हयात आए, कजा ले चले, अपनी खुशी ना आए, ना अपनी खुशी चले..’।

जिगर की ग़ज़ल ‘हमको मिटा सके जमाने में दम नहीं, हमसे जमाना खुद है, जमाने से हम नहीं..’ या फिर खुद सुदर्शन फ़ाकिर की ग़ज़ल ‘इश्क़ में ग़ैरत-ए-जज्बात ने रोने ना दिया, वरना क्या बात थी, किस बात ने रोने ना दिया..’।

दर्द बेग़म अख्तर की आवाज़ में इस कदर उभर कर आता था कि क्या कहें! जो दर्द बेग़म अख्तर की आवाज़ में जिगर की गहराइयों तक उतरता है, वही किशोर दा की आवाज़ में भी है। यह अलग बात है कि जहां बेग़म अख्तर का ताल्लुक शायरी की शीरी दुनिया से है, वहीं किशोर दा का ताल्लुक रंग-रसीले फिल्म संसार से। फिर भी दोनों बेजोड़ कलाकार हैं।

हम किशोर कुमार के गाने सुनते हैं, लेकिन उनकी ज़िन्दगी के दिलचस्प क़िस्सों को जानकर ऐसा लगता है, मानो किशोर दा के जीवन की कई नईं परतें खुल रही हैं। अभिनेत्री तनुजा ने फिल्म ‘दूर का राही’ में किशोर कुमार के साथ काम किया था। शूटिंग खुद किशोर कुमार के घर पर ही चल रही थी। सुबह जब तनुजा किशोर कुमार के घर पर पहुंचीं, तो देखा कि किशोर हारमोनियम लेकर बैठे हैं। उन्होंने कहा- ‘आजा तनु, आज तुझे गाना सुनाता हूं। आज मूड है मेरा गाने का।’ और उस दिन उन्होंने सारे ग़मज़दा नग़मे सुनाए। तनुजा ने कहा कि किशोर दा आज आप हमें इस तरह रुलवा क्यों रहे हैं, तो किशोर ने कहा कि ‘कभी कभी मन ऐसा ही हो जाता है। आज मैं उदास हूं और तुम मेरी उदासी को बांटो।’

किशोर कुमार हमारे लिए हज़ारों गानों की पूंजी छोड़कर गए हैं। ऐसा क्यों है कि जब बारिश के किसी दिन हमें वो लड़की मिल जाती है, जिसकी हमें तलाश थी, तो हमारे होंठो पर गीत तैरता है- ‘इक लड़की भीगी भागी सी..’ ऐसा क्यों है कि एक ही घर में पिता और बेटे दोनों ही किशोर को गुनगुनाते हैं? क्यों ‘छोटा-सा घर होगा बादलों की छांव में..’ अकसर हमारे सपनों की इबारत बन जाता है? क्यों घर से दूर रहने वाले भाई फोन पर अपनी बहना के लिए कहते हैं ‘फूलों का तारों का सबका कहना है..?’ दरअसल किशोर कुमार और बेग़म अख्तर दोनों ही हमारी मुस्कानों और हमारे आंसुओं में छिपे हैं। दोनों को विनम्र श्रद्धांजलि


 अनजान मददगार

अनजान मददगार       दिसम्बर के शायद पहले हफ्ते की बात है!  सर्दियाँ शुरू हो चुकी थीं....मौसम बड़ा खुशगवार होता था उन दिनों!   शाम होते ही धुंध की चादर पूरे वातावरण को ढक लेती थी!  मैं ऑफिस में जल्दी-जल्दी कम निपटा रही थी!  यूँ तो उँगलियाँ तेजी से की-बोर्ड पर चल रही थीं पर निगाह बार-बार कंप्यूटर की स्क्रीन से हटकर दीवार पर लगी घडी पर चली जाती थी!  मैं समय की बहुत पाबंद हुआ करती थी, सुबह वक़्त पर अपनी टेबल पर मौजूद होती थी लेकिन शाम का कोई वक़्त निर्धारित नहीं था!  ऐसे में जल्दी अपना काम निपटाना और भागना ही मेरी प्राथमिकता हुआ करती थी!  यूँ भी सर्दियों में छह बजते-बजते अँधेरा घिर आता था!  दो बस बदल कर घर आना होता था क्योंकि ऑफिस खासा दूर पड़ता था! अभी कम ख़त्म ही हुआ था, मैंने नोट पैड पर अगले दिन के जरूरी काम लिखे और बैग लेकर निकालने लगी!  तभी पिओन ने आकर एक परचा थमा दिया!  देखा एक जरूरी असाइमेंट जाना था! कल पर नहीं टाला सकता था और मेरे साईन भी जरूरी थे, लिहाजा खिड़की से बाहर अँधेरे को निहारते हुए मैंने बेमन से बैग वापिस टेबल पर रख दिया!
     काम खत्म होते-होते एक घंटा और गुजर गया!  पीछे से काफी देरी हो रही थी! जब तक कागजात पूरे हुए, एक्साईस रजिस्टर में एंट्री की और बिल पास किया तब तक एक और घंटा गुजर गया! बाहर निकलने लगी तो मुझसे सीनिअर मैडम ने इशारा किया.... रुको, टाइम देखो!  देखा तो वाकई घडी में आठ बजकर 15 मिनट थे!  घर पहुँचाने में अभी करीब सवा घंटा और लगता!  तभी पिओन मेरे लिए ऑटो ले आया!  नियमानुसार उसने ऑटो का नंबर नोट किया! वैसे भी उसे हिदायत थी ऑटो वाले का हुलिया और नंबर नोट करे!
     ऑटो में बैठते हुए मैंने देखा एक बुजुर्ग सरदारजी थे!  दरमयाना कद, गंभीर चेहरा और चेहरे पर अनुभव की आड़ी-तिरछी लकीरें बता रही थी की उनकी उम्र को साठ के लगभग रही होगी!  ऑटो में बैठकर मैंने चलने का इशारा किया! गंतव्य तो पिओन ने समझा ही दिया था!  ऑटो चल पड़ा ,  मैं देर होने पर थोड़ी परेशान सी थी! दिन भर की थकान अब सुकून की तलाश में थी!  ठण्ड लगने पर मैंने बैग से शाल निकला और कसकर लपेट लिए!  मुस्तैद निगाहों से रास्ते पर नज़र थी!  तभी मायापुरी चौक आ गया !  मैंने रेड लाइट से सीधे ही रामा रोड की ओर से निकलने के लिए कहा, सरदारजी ने सर हिलाया और मेरे बताये शोर्टकट पर ऑटो दौड़ा दिया!  
     रामा रोड एक व्यवसायिक एरिया था! ज्यादातर  फेक्टरियाँ और  दफ्तर बंद हो चुके थे!  रोड बड़ा ही सुनसान था!  कोई ट्रेफिक या आवाजाही नहीं होती थी!  लिहाजा ऑटो से घर पहुँचाने में बमुश्किल पौन घंटा लगता था!  ऑटो दौड़ रहा था कि अचानक उसका संतुलन बिगड़ने लगा, इससे पहले कि मैं कुछ समझती जोरदार आवाज़ और एक झटके के साथ एक गोलचक्कर की पटरी पर चढ़कर ऑटो रुक गया! मैं एकाएक घबरा गयी, मेरे कुछ कहने से पहले ही सरदारजी बोले "बेटाजी, ब्रेक फेल हो गए थे.....!  मेरा कलेजा मुहं को आ गया, ईश्वर का धन्यवाद् दिया और सरदारजी को भी शुक्रिया कहा कि उन्होंने इस मुश्किल घडी में धैर्य और अनुभव से ऑटो को संभाल लिया!  सरदारजी ने मुझे दूसरा ऑटो लेने की सलाह दी और खुद ऑटो को धकेलते हुए ले जाने लगे! वहां से नज़र हटाकर जब चारों ओर नज़र दौड़ाई तो जाड़े में पसीना आ गया!  दूर-दूर तक आदम न आदम की जात!  सुनसान सड़क पर खड़ी थी जहाँ ना कोई बस आती थी ओर ना ही ऑटो!  अचानक अखबार की खबरें मेरे इर्द-गिर्द घूमने लगी और मन किसी अनहोनी की आशंका से भर गया!
     समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ, कहाँ जाऊं, सरदारजी भी जा चुके थे!  मैं डर के मारे सोच नहीं पा रही थी!  दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था और दिल जोरो से धड़क रहा था! यकीन मानिये, चंद लम्हों में अपने सारे इष्टदेवों को याद कर लिया था और मन ही मन जय हनुमान ज्ञान गुण सागर गा रही थी!  चहलकदमी करते हुए एक शराबी भिखारी को देखा तो सांस रुक गयी और मैं दीवार से लगभग चिपक कर खड़ी हो गयी, मुझे घूरते हुए वह दूर निकल गया तो ही सांस वापस आई!   तभी दूर से एक लाइट दिखी तो देखा एक दुपहिया था!  हालाँकि मेरा उसूल था मैं कभी भी किसी से लिफ्ट नहीं लेती थी लेकिन उस वक़्त स्वतः ही मेरे दोनों हाथ मदद के लिए उठ गए!  दुपहिया मेरे करीब आकर रुक गया!  यह एक सत्ताईस-अट्ठाईस साल का युवक था!  मैंने लगभग हकलाते हुए पूछा "भैया, आप कहाँ जा रहे है?" "आपको कहाँ जाना है" ....आप यहाँ?....."मेरे ऑटो के ब्रेक फेल हो गए, उसने बताया उसे तो लक्ष्मी नगर जाना था, हाँ वो मुझे रामा रोड पार कर फ्लाई ओवर के पास छोड़ सकता है......डूबते को तिनके नहीं पूरी नाव का सहारा मिल गया था, लेकिन..........
     आशंकाओं से घिरी मैं दुपहिये पर बैठ गयी!  सोचा यदि कोई अनहोनी की भनक भी लगी तो आराम से कूद जाऊँगी!  मन ही मन ईश्वर को याद कर रही थी, वाहन हवा से बातें करने लगा कुछ ही मिनट में हम लोग फ्लाई ओवर के पास थे!  यहाँ से उसका रास्ता अलग था और मेरा अलग!  मैंने उसे ह्रदय से धन्यवाद् दिया और पैदल रेड लाइट पार करके बस स्टैंड पर आ गयी! वहां से ऑटो लेकर घर पहुंची!  पूरे रास्ते उस अनजान मददगार को धन्यवाद् देती रही! घर पहुँचते-पहुँचते पूरे सवा दस बज चुके थे! उन दिनों मोबाइल तो था नहीं मेरे पास !   घरवाले अलग परेशान!  आज भी कभी वहां से गुजरना होता है तो जाड़े की वो सर्द रात और उस अनजान मददगार की याद आ जाती है और मन से उसे धन्यवाद् देती हूँ!


अरे भाई....... !

अरे भाई....... !
अरे भाई ! तुम तो गूलर के  फूल हो गए हो ? 
कहाँ रहते हो आजकल, दीखते ही नहीं,ये कहावत बहुत बार सूनी है मैंने , और आज जब ऐसे ही याद आयी | तो मुझे गूलर यानी अंजीर यानी fig - मामा के गाँव का वो अकेला पेड़ जो चारों तरफ खेतों से घिरा हुआ याद आया, मैं जब भी मामा के यहाँ जाती थी उस पेड़ का मुवायना जरूर करती थी वैसे तो आम के बाग ,तालाब , बडे बडे खेत , और भूत प्रेतों के किस्से सबसे मिलते थे भूत प्रेत...
हाँ मगर किस्सों को  मैं जो चटखारे ले ले कर सुनती थी  , गाँव जाते ही समूह बन जाता था | चुमंतू जीवों की तरह , इस बाग़ से उस बाग़ ,इस घर से उस घर...लेकिन वो गूलर का पेड़ ..

सबसे प्यारी जगह थी मेरी , जैसे गाँव मैं बुजुगों की चौपाल होती है वैसे ही वो गूलर का पेड़ | हम बच्चों की चौपाल ..जगह ही ऐसी कोई भी फ़िदा हो जाए..... चारों तरफ खेत ही खेत , और उन खेतों को पार करिए तो गाँव का स्कूल..मैं जब भी छुट्टियों के मैं गाँव जाती थी |

बे-खटके स्कूल चली जाती थी...प्रवेश मैं कोई शिकायत नहीं, क्यों..?क्यों क्या शहर से आये हैं | छुट्टियाँ मनाने और रुआब वाले हैं ..हा हा हा , दो चार इंग्लिश poem सूना दी | बन गया अपना रूतबा..... जो भी हो मेरी खूबसूरत यादें इन हाई- tech city की लाइफ !  मैं नहीं इन गाँवों की यादों मैं बसती है, हाँ तो गूलर का पेड़ सभी बोलते थे, इसका फूल रात को 12 बजे ही खिलता है और जो देख लेगा वो बहुत ही अमीर हो जाएगा....

आज गूगल की एक तस्वीर मैं कुछ फूल जैसा ही दिखा.... हो गए मालामाल नहीं तो  पेड़ के पास cctv लगा देते हैं या discovery वाले खींच लायें फोटो मगर तब ये सब नहीं था वहाँ नहीं तो दिमाग जरूर भिड़ाते....

अब तो हम ही अपने गाँव के लिए  गूलर के फूलबन चुके हैं,यादें हैं की बार बार वहीं ला कर जडवत कर देती हैं मुझे क्या वक्त के साथ और समय की गति के साथ ....सब लोग  गूलर के फूल की तरह हो जायेंगे.......?




आज मैं फिर अकेली हूँ दोस्त…..

आज मैं फिर अकेली हूँ दोस्त…..
कहते हैं बीता हुआ पल कभी गुजरता नहीं ,गुजर तो हम जाते हैं किसी मुसाफिर की तरह !वो बीता हुआ पल वर्षों बाद भी हमारी राह तकता रहता है कि हम आयेंगे फिर से उसे सहलायेंगे ,गुनगुनायेंगे |स्वाति और वर्षा भी गुजर चुके थे उस एक पल को छूते हुए अलग -अलग रास्तों पर  |लेकिन एक दिन, २५ वर्ष बाद जब स्वाति यूँही फेसबुक के पन्ने पलटती रहती है तो अचानक वो फिर से टकरा जाती है वर्षा से ,फिर से जिन्दा हो जाता है वो पल |उस एक पल को बयाँ करती हुई स्वाति की ये चिट्ठी हम आपके लिए लेकर आये हैं-
वर्षा , मेरी  बाल   सखि , बचपन  की  सबसे  प्यारी  दोस्त ! तू कैसी है? रात देर  जबसे तेरा प्रोफाइल देखा है, मैं तो सुध -बुध  ही भूल गयी हूँ! तबसे लेकर अब तक जाने कित्ती बार ३० एनेक्स विष्णुपुरी से तेरे घर के चक्कर लगा रही हूँ! लिखने लगी तो लिखती ही गयी…सोचा तुझे नोट ही लिख डालूं…तुझे ये सब याद है ना?   देख तो याद आता है क्या…..
कि  तेरे  संग  मेरे  नन्हे  क़दमों ने लंगड़ी खेलना सीखा, गिरना सीखा और गिरकर फिर उठना भी सीखा! गरमी के दिनों में भर दुपहरी में हम खुराना अंकल के घर के  पीछे वाले जंगल में पम्मी दीदी के संग  खजूर के पेड़ों से ठूंट भर खजूर तोड़ने उन काँटों भरे जंगलों में जाते  थे! कच्चे कच्चे पीले खजूर खुद खाकर तू मुझे लाल मीठे वाले दे देती थी! हमारा वो छोटा वाला, तेरे घर के पड़ोस का मैदान जहाँ हम हर शाम  छे बजे तक  खूब हुडदंग मचाते थे, मंजूषा और कविता कापसे को खूब हराते थे…छुपा छुपायी खेलते वक़्त प्रधान साहब के घर के ओसारे  में छुप जाते थे और उनके घर के अन्दर से भौंकने की आवाज़ सुन डर के भाग जाते थे! कित्ती बातें याद दिलवाऊ  तुझे मेरी दोस्त?? मुझे यकीन है की तुझे भी ये सब याद होगा ही!
पिपल्या-पल्य याद है न? जामुन तोड़ने इसी मौसम में जाते थे..कित्ती बार चोरी छुपे गए थे…पीछे वाले ताल में तैरते कमल के फूलों ने कित्ती बार हमारे मन को हुल्साया था! और हमारी साइकिलें? उनकी सवारी!! हा हा कित्ती बार तो गिरते थे, कित्ती बार घुटने छिले और अनगिन बार कोहनियाँ भी, लेकिन हम तो अपने में ही मस्त रहते थे! तुझे वो कुआँ याद है जिसमें अक्सर पानी कम ही रहता था लेकिन उसके ऊपर आम के पेड़ की डालियाँ आ जाती थी और जिसपर हर साल सावन में झूला पड़ता था तब हम दोनों ही पार्टनर होती थी और ये लम्बी लम्बी पेंगें भरती थी….क्या जीवन अब भी तुम्हे उतनी ही लम्बी पेंगें भरने की इजाजत  देता है वर्शु? होली वाले दिन याद हैं? हम लोग एक हफ्ता पहले और एक हफ्ता बाद तक होली खेलते थे…विष्णुपुरी में अक्सर नए घर बना करते थे उन दिनों…तब उनकी टंकियों में जो होली खेली जाती थी…उसका क्या मज़ा था!! मेरे जीवन की वो आठ अद्भुत होली थीं! वहाँ से जाने के बाद , जीवन में फिर मैंने कभी होली नहीं खेली–खेली भी होगी तो बड़े रस्मी तौर पे! गिल्ली डंडा खेलना याद है? कीते झगडे कित्ते गुस्से फिर कित्ती मनवाइयां! कित्ती बार तो गिल्लियां घुमाई होंगी और इन्द्रपुरी जा जाकर उन्हें  बनवाया करते थे!आधी से ज्यादा तो वो गुप्ते साहब की बागड़ में ही घूम जाती थी..हा हा हा! उनका सुपुत्र नचिकेत याद है? चश्मीश !! तू उसे क्या कहती थी याद है?हा हा…यहाँ  नहीं लिखूंगी :)
गरमी के दिनों में हम गन्ने का रस पीने रसवंती/मधुशाला में जाते थे.. ढेरों बर्फ डाल कर, निम्बू का रस मिला कर और ढेर सारा काला नमक डाल के उस गन्ने के रस में गन्ना  कित्ता बचता होगा राम ही जाने!
मेरे बाल्य जीवन के कटु-मधु  क्षणों की साथिन, मैं क्षमस्व हूँ कि जीवन के उस मोड़ से (जहाँ हम बिछड़  गए थे ), अब तलक, मैं तेरे साथ नहीं थी!  लेकिन अब…तुझसे इतनी बात करना चाहती हूँ की समझ नहीं आ रहा  कि कहाँ से शुरू करूँ? इस ख़ुशी को कैसे ज़ाहीर करूँ? जाने कहाँ कहाँ तेरे बारे में पूछती थी लेकिन तू कहीं मिल न सकी| ये ख़त उन सारे सालों की पूर्ति नहीं कर सकता..कर भी नहीं सकता! लेकिन फिर भी सोचती हूँ कि तुझे बताऊँ कि मैंने तुझे कितना मिस किया!  मेरे जीवन में तूने तब प्रवेश किया था जब मैं नितांत  अकेली थी…माँ जबलपुर में रहती थी और पापा हमेशा टूर पे! मेरे दिनों को तूने जैसे पंख दिए थे!  हँसी दी, ख़ुशी दी, गीत दिए, मिठास दिया,जीवन को मनो स्पंदन दिया| हम दोनों हाथ में हाथ डाले छत  पर बैठ कर गपियाते थे…खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी गाते थे!  याद है,  मैं रोज़ शाम को तेरे घर से वापस आना नहीं चाहती थी! और बाकी के दिन तू मेरे घर से वापस जाना नहीं चाहती…आज मैं फिर अकेली हूँ दोस्त, माँ पापा के जाने के बाद……….!
पिछले दिनों इंदौर में थी तब तेरे बारे में पता पड़ा था कि तू जयपुर में है, पता नहीं था कि तू इत्ती बड़ी शायरा और लेखिका बन गयी है…सच मान तुझे देख कर, तेरा रुतबा देखकर खूब ख़ुशी हो रही है….चल बहना, एक बार फिर बचपन में लौट चलते हैं..बड़े होने में कुछ मज़ा नहीं! जल्द ही मिलने के वादे के साथ..तेरी स्वातु!