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बोलो तो मुसीबत, चुप रहो तो मुसीबत!!


रवीन्द्र प्रभात एक सुलझे हुए चिट्ठाकार हैं जिनके आलेख मैं उनकी चिट्ठाकारी के आरंभ से ही पढता आया हूँ.  उनके कई आलेख बहुत ही विचारोत्तेजक रहे हैं एवं उन आलेखों पर टिप्पणी करते समय मैं ने इस बात का उल्लेख भी किया है. हिन्दी चिट्ठाजगत के लिये कुछ करने की इच्छा के कारण उन्होंने “परिकल्पना ब्लागोत्सव” का आयोजन  आरंभ किया था.  इसके के कारण चिट्ठाकारी और चिट्ठाकारों को काफी प्रोत्साहन मिला था.
जब हम पडोसी के लिये कुछ करते हैं तो हम को भी फल मिलता है. यह प्रकृति का नियम है. इस कारण इन ब्लॉगोत्सवों द्वारा रवीन्द्र काफी लोगों की नजर में आये, काफी नाम मिला, प्रशंसा मिली. इसमें किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिये. यह उनके सत्करर्म, उनकी सेवा, का स्वाभाविक फल है. हम सब की कोशिश यह होनी चाहिये कि उनके समर्पण एवं उनकी मेहनत को प्रोत्साहित करें.
मेरे बेटे की मोटरसाईकिल-बस दुर्घटना के कारण मैं  छ: महीने चिट्ठाजगत के बाहर रहा था. कल जब वापस आया तो देखा कि कई लोग जम कर  ब्लॉगोत्सव की आलोचना कर रहे हैं. कारण वही हमेशा वाला प्रश्न है: फलां फलां व्यक्ति/व्यक्तियों को क्यों नाम/इनाम/प्रतिफल मिल रहा है. रवीन्द्र की जम कर खिचाई हो रही है. अरे रवीन्द्र भाई, आप को लग रहा होगा कि बोलो तो मुसीबत, चुप रहो तो मुसीबत!!. सही है. लेकिन आप तो लगे रहें. पत्थर तो उसी पेड पर फेंके जाते हैं जिस पर फल लदे हों. अत्: मेरा सुझाव है कि कर्म करते रहें, फल बांटते रहें! कुछ फल उनको भी दे देना जिन्होंने पत्थर फेंके हैं. आखिरकार पत्थर फेंकने के लिये भी तो मेहनत लगती है!!
बस मैदान में डटे रहें!